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बूते थके - अपाहिज कंधे / कुमार रवींद्र

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कौन टिके इस गाँव-जवारे में
            सूखी नदी - हवाएँ अंधी
         बैठी गिनती रात दियारे में
 
पिछले दिनों ढहा छप्पर
अब घर की बारी है
कच्चे आँगन में
दिन ढलने की लाचारी है
 
बूढ़ी देहरी डूब रही गाढ़े अँधियारे में
 
बैल पुराने कब तक जोतें
बंजर सन्नाटे
जौ-बजरा के बदले मिलते
अब केवल काँटे
 
गये-साल तो गये खेत-खलिहान उधारे में
 
बूढ़े थके अपाहिज कंधे
बोझिल मजदूरी
फटी-पुरानी चादर ओढ़े
बैठी मजबूरी
 
टूटा चरखा लटका है कब से ओसारे में