भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पर्वत काँपते हैं / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:08, 13 दिसम्बर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार रवींद्र |अनुवादक= |संग्रह=च...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
कट रहे हैं पेड़- पर्वत काँपते हैं
नदी में ठहराव
पथरीली हवाएँ
ढह रही पगडंडियों की
हैं कथाएँ
आँख गीली मौन सूरज ढाँपते हैं
सोचती है धूप -
जंगल क्यों खड़े चुप
किस तलहटी में उतर कर
फूल के जलसे गये छुप
ताल रेतीले इलाके नापते हैं
कौन जाने तेज कितने
ये कुल्हाड़े
गर्दनें सबकी झुकी हैं
दिन-दहाड़े
उन्हीं की खबरें रिसाले छापते हैं