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चेहरों के अंतरीप (कविता) / कुमार रवींद्र

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एक मुखर मौन और
 
   मुँह बाँधे लेटे हैं
   सपनों के इंद्रजाल
   सोच रहा है कमरा
   मन में घिरते सवाल
 
कहीं नहीं और ठौर
 
   कहीं-कहीं दिखते हैं
   चेहरों के अंतरीप
   बक्से में बंद पड़े
   बचपन के शंख-सीप
 
कानों की तपी लौर
 
    छूने का पहला भ्रम
    सोया है आँख-मूँद
    तपे हुए माथे पर
    पानी की एक बूँद
 
यादों के थके दौर