पाँचम खण्ड / भाग 3 / बैजू मिश्र 'देहाती'
मेघनाद छल द्वारक रक्षक,
छल करैत ओ प्रबल प्रहार।
देखि एकसर अंगद अएला,
मदति करए हित हुनक समीप।
जामवंत नलनीलहुँ आएला,
हृदय राखि कोशलक महीपं
बल छल बढ़ल पवनसुत मारल,
मेघनादकें कसिकए लात।
प्रबल प्रहार तेहन छल जनु हो,
इन्द्रक हाथक वज्रक पात।
मूर्छित भए रथ पर लोटल,
घुरल सारथी मृतवत जानिं
अपन शिविरमे जा पहुँचल,
अछि उमाए एतबेटा मानि।
देखि पराभव मेघनाद केर,
दलमे ओकरा भगदर भेलं
पवन पुत्र अंगद मिलि दूहू,
अगनित दनुजक वध कए देल।
कतेक महलकें ढा़हि खसौलनि,
द्वार सहित तोड़ल देबालं
दूहू वीर देखाबय, घुरला,
कहल रामकें सभटा हाल।
गेला जानि हनुमंत बालिसुत,
भेल आइ सबहक संहार।
मुदा आबि अतिकाय अकंपन,
देल अपन दलकें लकार।
पुनि राक्षस दल घुड़ल लड़ए हित,
माया कए कए देलक अन्हारं
सोनित पाथर बहु बरसाओल,
कयल कीश दल हाहाकारं
अन्तर्यामी बूझि गेला सभ,
तुरत पठौलनि दूहू वीर।
अंगद ओ हनुमान गेला पुनि,
जाए बनहौलनि सभकें धीरं
अनल वाण प्रभु स्वयं चलौलनि,
माया पलमे गेल बिलायं
तखनहि दुहू वीर बलशाली,
राक्षस दलकें देलनि नचायं
साँझ भेलै सभ आपस अएला,
दलमे छल अति सैं आनंद।
कयल प्रशंसा जा जा सभ तरि,
शिविर शिविरमे रघुकुल चंदं
ओम्हरो सैन्य पती सभ जुटला,
रावण के लागल दरबार।
अपन पराजय केर सुनौलक,
कथा बिकट छल कतेक प्रहारं
पुनि पुनि माल्यवान समझौलनि,
छोेडू शत्रुता रामक संग।
किंतु अंध छल मदमे रावण,
शुभ बिचार केर लगै ने गंध।
मेघनाद पुनि बाजल मदमे,
काल्हि मरत सभ देखबे युद्ध।
रोकि नहि सकत एकोटा योद्धा,
कतबो युद्धक हैत प्रबुद्ध।
कयल प्रशंसा खूब दसानन,
मेघनाद केर सुनितहि बात।
पुनि अभियान ओकर छल जागल,
दुख चिंता के कयलक कात।
दोसर दिवस युद्ध पुनि ठनलै,
मेघनाद गरजल घनघोर।
राम लखन छह कहाँ नुकायल,
जनु संतरिसँ रहइछ चोर।
करइत छला सैन्य संचालन,
पाछा रहि श्रीलक्षमण रामं
सुनि ललकार लखनजी बढ़ला,
मेघनाद के छोड़बए घामं
जखन शेष अवतार छलाहे,
ताहू पर छल युद्धक क्रोध।
एक वाण शत शत बनि बरसए,
छलै तकर नहि किछु अबरोध।
त्राहि त्राहि छल दनुजक दलमे,
चारू दिश छल हाहाकार।
मेघनाद लखि सैन्य पराभव,
माया केर कयलक व्यवहारं
अंधकार कए युद्धस्थलमे,
बसिसौलक पाथर अरू रक्त।
प्रबल प्रहार कयल सभ निशिचर,
होइछ ई निशिकाल सशक्त।
बिल भेला बानर दल अति सैं,
भय चिंत उर गेल समाए।
राम देखि ई दशा सैन्य केर,
अग्नि वाण दय देल चलाए।
हटल दनुज के सभ माया छल,
बानर दल केर जागल भाग।
प्रबल बेगसँ झपए लगला,
चोट खाए जनु झपटय नाग।
किछुए क्षणमे रिपु दल ठहड़ल,
आई भेलै बलगर संट।
ताहू पर सऽ वाण लखन केर,
काटाए शत शत दनुजक घेंट।
मेघनाद अति सैं व्याकुल भए,
सोचल अछि ने प्राणक त्राण।
हारि चलौने छल ओ राक्षस,
विकट शक्तिधर शक्तिक वाण।
मूर्छित भए खसला श्रीलक्ष्मण,
छलै वाण केर तेहने चोट।
मेधनाद निर्भय चलि आयल,
हुनक समीप विचारक छोट।
छलै विचार उठाली चलि दी,
लखनक देह विजय केर केतु।
छला शेष अवतार मुदाओ,
उठा सकल नहि ताही हेतु।
मेघनाद घुरि गेल महलमे,
नहि प्रसन्नता हृदय समाए।
उठा पवन सुत लखन लालकें,
निज निवास अएला दुख पाए।
राम देखि लक्ष्मणक दशाकें,
लगला अति सैं करए विलाप।
नरलीला केर रूप जतेक छल,
कएल प्रदर्शित मन संताप।
जामवंत हनुमतकें कहलनि,
जाए सुषेण वैद्य कें लाउ।
हैत बिलम्ब ने कनियों समुचित,
सबहक शीघ्रे कष्ट मेटाउ।
गेला पवन सुत वैद्यकें, आनय सपदि बजाए।
सूतल देखि सुषेणके, लयला घरहि उठाए।
देखि सुषेण कहल ततए, अछि टा एक उपाए।
संजीवनि जौं लबध हो, लखनहि सकब बचाए।
विष मेटाए जीवित करब, छै ओकरे सामर्थ।
आन उपाए ने छै कतहु, सभटा होयत व्यर्थ।
सुनितहि सभ क्यो रामदल केर, प्रश्न जटिल भए रहला स्तब्ध।
होयत कोना भोरसँ पहिने, संजीवन औषधि उपलब्ध।
जामवंत तैखन उठि बजला,
लए अओता निश्चय हनुमंत।
बुद्धि लिधान थिकाहे जानल,
जानल छथि अति सैं बलबंत।
गदा सम्हारि पवन सुत चलला,
गिरि सुमेर पर आनय हेतु।
कालनेमि बाटहिमे घेरल,
कपट रूप धयने ग्रह केतु।
ओझरौलक किछु काल स्वांग रचि,
हम छी पैघ तपस्वी राज।
किन्तु कृपा रघुनाथ राम केर,
किछुए क्षणमे खूजल राज।
तैखन पठा यमालय रिपुकें,
बढ़ला आगाँ श्रीहनुमान।
पहुँचि गेला पर्वत सुमेरू पर,
भेल ने औषध झट पहिचान।
उठा लेलनि सौंसे पहाड़कें,
चलला वायु वेगसँ वीर।
किन्तु अयोध्या पर अबितहि छल,
लागल भरथक छोड़ल तीर।
खसला राम राम कहि हनुमत,
गेला भरथ हनुमतक समीप।
जानि सकल वृतान्त भाइ केर,
बहु कनला कोशलक महीप।
पुनि लए आज्ञा भरथ केर हनुमत,
उच्चारल श्रीरामक नाम।
बिदा भेला झट दऽ पहुँची हम,
उर नहि छल कनियों विश्रामं
रातिक शेष छलै लगिचायल,
रामक दलमे छल नहि चैन।
आतुर भेल सभक सभ बिलखथि,
सभक वहै छल जल बहु नैन।