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दृश्य में स्त्री का प्रवेश / राग तेलंग

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एक स्त्री जिस किसी दृश्य में प्रवेश करती है मंज़र बदल जाता है
यह एक ताक़त को देखने-महसूस करने की बात है
चाहे वह पेंटिंग हो,फिल्म हो,बागीचा हो या हो स्वप्न
एक स्त्री अकेली नहीं जाती कहीं पर,उसके साथ रंग चलकर आते हैं
और खुशबू ,और ख़याल,और ख़्वाब,और...और... और भी बहुत कुछ

जब मुस्कराती है मोनालिसा बन जाती है
जब खुलकर हंसती है बेड़ियां टूट-टूट जाती हैं
जब रोती है चांद सितारे थम जाते हैं
जब लोरी सुनाती है जगमगाने लगते हैं स्वप्न

उसके कई नाम हैं जो दिल के संदूको में बंद हैं
जिन्हें कभी नहीं खोला जाना है
जो गूंज रही है धड़कनों में संगीत बनकर
जो बार-बार चलाती है बुरूश स्मृतियों के केनवास पर
जो पसीने की गुजरी हुई लकीर पर हाथ फेरकर दूर करती है थकान
वह एक स्त्री है जिसके होते घूम रहे हैं सारे पहिए अब तक
मगर कुछ या कई दृश्य ऐसे हैं जो थमे हुए हैं वहीं के वहीं
जैसे अभी भी वह लगा रही है झालर अपने बुर्के में
बात करती है सकुचाती-डरी-सहमी सी घूंघट की आड़ में
उसकी सारी उमंगें और उत्साह थककर चूर हो जाने हैं रसोईघर में ही
अभी भी वह इजाजत लेने की मोहताज है

उसकी अनंत इच्छाओं के आकाश में ढेर सारे टूटे हुए पंख छितरा रहे हैं
उसके क्रंदन के स्वर बादलों की गड़गड़ाहट से हैं कहीं तेज़

अभी दरवाजों के पीछे कई ताले जड़े दरवाजे हैं
जिनके पीछे खड़ी है स्त्री इंतज़ार में

अभी कई और दृश्यों की प्रतीक्षा है जिनमें अपेक्षित है
स्त्री का प्रवेश ।