कमाल की औरतें २३ / शैलजा पाठक

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वो किनारों पर रेत लिखती थी
पत्थरों के सीने पर पछीट आती लहरें
इतनी सी सीपी में बंद कर रख आती इंद्रधनुष
क्षितिज के माथे चिपका आती रात उतारी बिंदी
पानी-पानी उचारती बंजर को ओढ़ा आती हरी चादर
खिड़कियों में कैद रखती मौसमों को

एक दिन नींद से हार गई
चूल्हे से किया समझौता
बिस्तर पर लिखी गई
मिटाई गई दीवारों पर रंग सी लगाई गई
पैरों के नीचे धरती लेकर चली लड़की
औरत बनी और खनक कर टूट गई

नदियां भाग रही हैं उसे खोजती सी
वो लहरों सी पछीटी जा रही है
समय के पत्थर पर सात टुकड़ों में बंद
इंद्रधनुष सीपी में कराह रहा
खिड़की की आंखें मौसम निहार रहीं

चूल्हे के सामने लगातार पसीज रही धरती
इनके पैरों में खामोश पड़ी है।

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