मैं जब भी लिखूंगी प्रेम ११ / शैलजा पाठक
मेरी हथेली पर जड़े चुम्बन में गीत था
रेखाओं में सनी तुम्हारी कहानी
समय की सीढिय़ों पर बैठे
हमने दुखती आहटों को नीचे जाने दिया
हम साथ सपने की सीढ़ी के ऊपर पहुंचना चाहते थे
तुम चुप रह कर भी बोलते से लगे मुझे
तुम बैठे हुए पैर कितना हिलाते हो
अरे नहीं
बस ऐसे आदत है सोचता हूं तब हिलते हैं पैर
तुम बात करो ना
वो यूं ही
मेरी कलाई के धागों में
अपनी अंगुली घुमाता
उसके आंख में मद्धम सी आग होती
परेशान हो? पूछने पर पलकें झपकाता
देश समाज को बदलने की चाह
ज़िन्दगी के रास्ते पर अकेला खड़ा हूं
प्रेम पर कविताएं नहीं लिख सकता
प्रेम के साथ चलना चाहता हूं
कि धूप बारिश सा दोगी तुम साथ
मेरी आवाज़ में ऊर्जा सी
मिल-जुल जाओगी मेरी माटी में
जहां रोपे हैं मैंने सपनों के बीज
मैं उसकी सबसे पहली हरी पत्ती की
झलक तुम्हारी आंख में देखना चाहता हूं
कसकर पकड़ी मेरी कलाई से
वो खोलता है अपनी भिंची मुट्ठियाँ
मैं बंध जाती हूं मैं बंधना चाहती हूं तुमसे
तुम मुक्त रहो सभी बधनों से।