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मैं जब भी लिखूंगी प्रेम ६ / शैलजा पाठक
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मैं जब भी लिखूंगी प्रेम
काली स्लेट पर बना मोर
पंख खोल कर नाचेगा
कागज़ की बनी नाव समंदर को चीरती
चांद की बुढिय़ा तक पहुंच जायेगी
उसे अपने साथ ले आएगी
पुराने कजरौटे में रखा काजल
कजरी की सूनी आंखों में सजेगा
विदाई का दिन नजदीक आ शहनाई सा बजेगा
कजरी तेरह साल बाद अपने ससुराल जाएगी
मैं जब भी लिखूंगी प्रेम
आंगन में गेहूं सुखाती अम्मा
एक चिडिय़ा को कजरी के नाम से बुलाएगी
चिडिय़ा चहचहाती कलेजे से लग जायेगी
अम्मा चूमेगी कजरी को
और कजरी...
किसी और की हो जाएगी।