ॠतुएँ गुनती हैं / पंकज सिंह
ऋतुएँ गुनती हैं 'का एक अंश
हवा की तरह हल्की,त्वचाहीन गुजरती जाती है घटनायें
हमारे आसपास हमारे शब्द स्थानांतरित होते रहते हैं
विकल्पों में तुम कांपती उंगलियों से जमी हुई सर्द
रातों को टकोरती हो जाड़े के धूप की तरह तुम्हारे शब्द
मेरे कमरे में बिछे रहते है मेरे बिस्तर मेरी किताबों
कमरे की तस्वीरों के पीले एकांत पर ...
तुम्हारी उम्र के बीते वर्ष लगातार तुम्हें दुहराते
चले जा रहे हैं तुम्हारी देह पर पीड़ा भरे बलात्कारों
की प्रेत छायाए हैं नम आँखों में अवसन्नता का अँधेरा है
... और तुम बदहवासी में अपनी नींद ढूढ़ रही हो
शोरों और संगीत में कंही कुछ नहीं है जो तुम्हारे दर्द से अलग
कोई नया अनुभव हो बेडौल पत्थरों की इस घाटी में
कहीं जिन्दगी नहीं केवल एक अभियान का अजाना सम्मोहन भर है ...
तुम्हारे फडकते हुए होठों पर टूटते शब्द मुझे तुम्हारी
नीली अतृप्तियो के सुरंगो तक ले जाकर छोड़ देते हैं हिंस्र और पराजित
और तुम्हारी गोपन कामनायें विवशताओ में नितांत अकेली
हो जाती हैं हर बार तुम अपनी बांहें आकाश को ओर उठा देती हो