घुड़सवार और कलाकार / प्रदीप मिश्र
घुड़सवार और कलाकार
(चित्रकार मक़बूल फि़दा हुसैन के लिए)
रंग के समुद्र में मंथन हुआ
और प्रकट हुआ एक कलाकार
जिसके एक हाथ में रंग की तश्तरी थी
और दूसरे में ब्रश
कलाकार ने सबसे पहले
जमीन को झाड़-पोंछ कर कैनवास बनाया
सोचा प्रकृति का एक सुन्दर चित्र बनाऊँगा
सेना के घुड़सवार गुज़रे उधर से
रौंद गए कलाकार के कैनवास को
रौंदे हुए इस कैनवास पर
घोड़े और उनके टाप चस्पा हो गए
कलाकार ने अपने ब्रश और जीवन के रंगों में
इन घोड़ों को सहेज लिया
कलाकार ने सामाज के मन:पटल को
बनाया कैनवास और
मनुष्य, सुन्दरता और धरती को
अंकित कर दिया कैनवास पर
फिर धुड़सवारों की सेना गुज़री
और कलाकार को धर्म का वारंट थमा गयी
कलाकार ने धर्म के नीलेपन को
सोख लिया अपने रंगों में
कलाकार ने फिर कोशिश की
नागरिकता और हक के रंग से
नया चित्र बनाने की
इस बार सारे कैनवास हटा दिए गए उसके सामने से
ब्रश और रंग की तश्तरी लिए वह धरती पर दौड़ता रहा
दौड़ते –दौड़ते देश की सीमा से बाहर निकल गया
फिर कभी नहीं लौटा
उसके रंग कभी-कभी आँसूओं की तरह टपकते रहे
पसीजता रहा धरती का एक कोना
इन आँसूओं के गीलेपन से
उसकी सफेद झक दाढ़ी के
पीछे छुपा झुलसा हुआ चेहरा
खूँटियों पर टँग गया
मक़बूल भी खूब हुआ
और फि़दा भी
लेकिन वह कैनवास उसे कभी नहीं मिला
जिस पर अपने मन के चित्र बनाना चाहता था
वह चाहता बनाना
मनुष्य को मनुष्य की तरह नंगा
प्रकृति को प्रकृति की तरह सुन्दर हरा-भरा
और समय को समय की तरह कठोर और चिकना
कभी भी किसी कलाकार की चाह को
बरदास्त नहीं किया है इन धुड़सवारों ने
वे अभी भी दौड़ रहे हैं उसके पीछे
कलाकार बहुत दूर निकल गया है
अब वह घुड़सवारों की पहुँच से बाहर है
इतमिनान से बैठकर सुस्ता रहा है
अंतरिक्ष के किसी ग्रह पर
किसी दिन आकाश में बने इन्द्रधनुष से
लटकती हुई सफेद झक दाढ़ी दिखाई दे
तो समझ जाना यह दाढ़ी कलाकार की है
जो ब्रश में तब्दील हो गयी है
पूरा आकाश अब
उसके लिए कैनवास है ।