जय राम जी की / प्रदीप मिश्र
जयरामजी की
सुना जयरामजी की
और कान में जमा हुआ बर्फ़
हृदय की सूखती हुई नदी में
पिघलकर बहने लगा
उसका अभिवादन करना चाहता था
मैं अपनी भाषा में
मेरे पास शब्द नहीं थे
मेरी भाषा मुझसे छूट गयी थी
जिस भाषा को जानता था
वह मेरी भाषा नहीं थी
सच तो यह था कि
अब मेरी कोई भाषा नहीं थी
भाषा नहीं थी
इसलिए देश भी नहीं
देश नहीं
इसलिए किसी देश का नागरिक भी नहीं
मैं तो ग्लोबलाइज्ड समय के ग्लोब पर
अपना संतुलन बना रहा था
सर्कस के जोकर की तरह
दुनिया के सभ्यतम समाज में प्रवेश करने के लिए
वीजा जुगाड़ रहा था
ऐसे में मेरे छूटे हुए समय से निकलकर
किसी का अनायास ही सामने आ जाना
और जयरामजी की कह देना
मेरी सारी प्रगति का माख़ौल था
अभिवादन का ज़वाब तो देना ही था
हाथ जोड़ कर पूरी विनम्रता से कह दिया
जय श्री राम
और मेरे सामने खड़ा वह व्यक्ति
धूँ ...धूँ करके जलने लगा।