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तुम्हें नहीं तो किसे और / अज्ञेय

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तुम्हें नहीं तो किसे और
मैं दूँ
अपने को
(जो भी मैं हूँ) ?
तुम जिस ने तोड़ा है
मेरे हर झूठे सपने को--
जिस ने बेपनाह
मुझे झंझोड़ा है
जाग-जाग कर
तकने को
आग-सी नंगी, निर्ममत्व
औ' दुस्सह
सच्चाई को--
सदा आँच में तपने को--
तुम, ओ एक, निःसंग, अकेले,
मानव,
तुम को--मेरे भाई को!