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कमरा / रघुवीर सहाय
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हम दो जने थे जागते
ऐसा लगा जैसे कि यह कमरा
रेलगाड़ी का एक डिब्बा हो
समय और अंधकार में यात्रा करता हुआ
चला जाता हो
और अकेला होता तो
लगता कि कोई प्रिय पात्र बीमार है
जिसके सिरहाने मैं बैठा जागता हूँ।