विषधर / संजय कुमार शांडिल्य
साँप केंचुल छोड़ चुका है
और जोड़े में है
मौसम से विदा होने को है बरसात।
हलवाहे श्रम की थकान मिटा रहे हैं
गा कर बची रह गई है
कजरी अभी गुनगुनाहट में।
हरियाली से फूल उठा है खेत
पॄथ्वी के गर्भिणी होने के संकेत
दो कोस दूर महल जैसे घर में
ट्रैक्टरों की ट्रालियाँ
धो-पोंछ रहा है बिचौलिया।
आढ़तिए गोदामों की सफ़ाई
शुरू करवा चुके हैं
जनसेवा का टिकट कटवा कर
घर लौट रहे हैं रघु चा।
प्यार से पार कर रहे
मोहल्ले से घर का रास्ता।
चाँद के सरकण्डे से
यही सुन्दर पनहारिन
झाड़ती है गाँव की गलियँ
मन ही मन फ़िदा होते हैं
माटी के रंग के दुपट्टे पर।
बन्दूकों की गोलियों के धमाके
फ़सल पकने की प्रतीक्षा में
साँझ अभी गिरी है
छप्परों से पूँछकट्टी बिछौतियाँ
इन्हीं हरी झाङियों में कहीं
आबादी बढ़ाने का ज़रूरी
व्यापार पूरा कर
एक दूसरे की देहों से
पलट रहे होंगे विषधर
चूहे बिल बना चुके हैं अन्तिम बार।