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प्रेम के असम्भव गल्प में-1 / आशुतोष दुबे

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कहन में नहीं अंटता; कहना पड़ता है. बिन कहे समझ लिया जाता है, लेकिन कहना पड़ता है. दो लोगों के बीच की हवा में जो अदृश्य है, उसे कहना पड़ता है. उसका होना उसकी कहन को साँसत में डालता है. उसका कहना उसके होने को भी बाज़ दफ़ा संकट में डालता है. मुसलसल एक मुसीबत है. एक यातना. बेचैनी. अनिश्चितता. और फिर भी कदम ज़मीन से कुछ ऊपर. प्रेम के अंतरिक्ष में यथार्थ की गुरुता के बोध का निषेध है. उसके गुरुत्वाकर्षण का प्रतिरोध. उसका अपना यथा-अर्थ है जिसकी उधेड़बुन में स्वप्न है, स्वैर-कल्पना है, धड़-धड़ है, नींद से खाली रातें हैं, एक तड़प भरी ख्वाहिश का मिस्डकॉल है, सरगोशियाँ हैं, अनायास-औचक मुस्कान है, उतनी ही औचक और बेवजह उदासी है, कुछ हो रहा है का अहसास है और उसके होने-न होने के शुबहे हैं. यह ज़मीन रपटीली है, भुरभुरी है कि यहाँ वह दलदल है जिसमें धँसते हुए जान पर बन आएगी- कहा नहीं जा सकता. पर कदमों को उठना है और ज़मीन से कुछ ऊपर चलना है. ‘सावधान, आगे ख़तरा है’ के नियोन साइन का मन में जलना-बुझना है. किसी परछाँई की बाँह थाम लेना है. लड़खड़ाने के खिलाफ जूझना है. भरोसे, डर और अचरज के रोमांचकारी सफ़र का सिन्दबाद होना है पर सिकन्दर हो पाएंगे या नहीं इस धड़के का बना रहना है. एक अनिश्चित नदी में उतरी हुई नाव में बिन पतवार डगमगाते हुए बैठ जाना है. नाव को ही खेवनहार होना है. निमिष भर को चमकी बिजली में दूर तक देख लेना है और फिर चमक के बाद के अँधेरे में लापता हो जाना है. एक अनुभूति में वास करना है जिसका अनुभव अभी एक स्वप्न है. एक शाश्वत गल्प की नागरिकता है. भरे भुवन में शब्दों की बेदख़ली है मगर संलाप-संवाद की कायमी बदस्तूर है. आँखों को ज़्यादा काम करना पड़ रहा है. बात पहुँची या नहीं इसका अन्देशा है. पहुँचना समझना है. पहुँच गई समझाना है. एक कठिन डगर जो अभी बनाई जानी है, बनाने से पहले ही कठिन है.