प्रेम के असम्भव गल्प में-4 / आशुतोष दुबे
हीरामन ने पूछा था हीराबाई से : मन समझती हैं न आप ?
रोग यहीं पर था. हीराबाई ने हीरामन का मन ही तो समझा. उसी का अनमोलपन जाना. जिस बाज़ार में वह खड़ी थी, वहाँ यह मन हीरे-सा चमकता था. जाना तो महुआ घटवारिन को सौदागर के साथ ही था. लेकिन उसका मन उस गाड़ीवान की छप्पर वाली गाड़ी में ही रह गया. हीराबाई रेल में चली गयी. लेकिन हम जानते हैं, वह हीरामन की उस बैलगाड़ी में ही बैठी रह गई. प्रेम के असम्भव गल्प में.
और इसी असम्भव गल्प से बाहर निकलने को छटपटाती हुई पार्वती जब अपने घर के बाहर पेड़ के नीचे मरते हुए देवदास के पास जाने को बाहर दौड़ी तो भुवन चौधरी ने नौकरों से हवेली के दरवाज़े बन्द करवा दिए. एक दूसरे समय में अपने कठिन दरवाज़ों को खोलकर वह आधी रात को अकेली देवदास के पास उसे अपना मन बताने आई थी. प्रेम की कहानियों में प्रेमियों को उसके लिए अप्रस्तुत रह जाने की भारी क़ीमत चुकानी पड़ती है.
और लहनासिंह ? उसे एक अकथ प्रेम का शहीद होना था क्योंकि ‘उसने’ कहा था. कहीं कुछ नहीं था और फिर भी था. वह लड़की वह नहीं थी जिससे वह छेड़खानी में उसकी कुड़माई के बारे में पूछता था. वह भी वह नहीं था जो उसके कहने पर कि हाँ हो गई, देखते नहीं, यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू... सड़क पर सबसे टकराते और अन्धे की उपाधि पाते किसी तरह घर पहुँचा था. प्रेम की कील में अटका चिन्दी-चिन्दी मन था जो हवा में फरफराता था. कहीं कुछ नहीं था और फिर भी था.