विदा के चौराहे पर: अनुचिन्तन / अज्ञेय
यह एक और घर
पीछे छूट गया,
एक और भ्रम
जो जब तक मीठा था
टूट गया।
कोई अपना नहीं कि
केवल सब अपने हैं:
हैं बीच-बीच में अंतराल
जिन में हैं झीने जाल
मिलानेवाले कुछ, कुछ दूरी और दिखानेवाले
पर सच में
सब सपने हैं।
पथ लम्बा है: मानो तो वही मधुर है
या मत मानो तो वह भी सच्चा है।
यों सच्चे हैं भ्रम भी, सपने भी
सच्चे हैं अजनबी--और अपने भी।
देश-देश की रंग-रंग की मिट्टी है:
हर दिक् का अपना-अपना है आलोक-स्रोत
दिक्काल-जाल के पार विशद निरवधि सूने में
फहराता पाल चेतना की, बढ़ता जाता है प्राण-पोत।
हैं घाट? स्वयं मैं क्या हूँ? है बाट? देखता हूँ मैं ही।
पतवार? वही जो एकरूप है सब से--
इयत्ता का विराट्।
यों घर--जो पीछे छूटा था--
वह दूर पार फिर बनता है
यों भ्रम--यों सपना--यों चित्-सत्य
लीक-लीक पथ के डोरों से
नया जाल फिर तनता है...