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उदयपुर में हूँ / रति सक्सेना

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उस दरख्त के किनारे
वह जो मन्दिर है
जिसमें ढ़ेर से देवी देवता हैं,
घंटे घड़ियाल हैं
प्रसाद की चाह में खड़ी गाय
पूँछ से मक्खियाँ भिनभिनाती रहती है
उसी के सामने लहरारही है वह झील
झील, जो मेरे जनम से पहले थी
झील, जो मेरी मौत के बाद भी रहेगी
झील, जो मेरे जिगर में जमी है
झील, जो लगातार पिघलती रहती है
बून्द बून्द समा गयी है वह मुझ में
मैं‍- जो कभी झील के किनारे का दरख्त थी
जिस के तने से ढोर डंगर पीठ रगड़ा करते थे
तना घिसते- घिसते जल राशी में समा गया
तभी से स्वप्न में भी तैरती उतरती हूँ
मैं- जो झील में तैरता लट्ठ थी
तैरते बच्चे उसे उठाते फिर दूर तक फैंक देते
ज्यों ही पास आती, कुछ और दूर फैंक दी जाती
आज तक बार-बार फैंकी जा रही हूँ
कुछ और पास आने को
वह झील में हूँ और मैं वह झील
बस एक जनम का ही सम्बन्ध है
मैं उदयपुर में हूँ......


शायद इसी पेड़ से फल बन
मैं टपक पड़ी थी झील में
उस तोते ने लम्बी उड़ान भरी
और उठा लिया
बड़ा स्वाद लेकर चबाया था मुझे
आज भी याद है मुझे उसकी चौंच की रगड़
उसकी जीभ का सहलाना,
या फिर उस रंग महल की नर्तकी के
घुंघरुओं से टपका एक घुंघरु थी मैं
अब भी कोई घुँघरु
लगातार मुझमें बजता रहता है
मेरी जीभ एक आँसू चुभलाती रहती है
उस जालीदार झरोखे से
कोई बाहर आने को तरसता है


इस झील के किनारे
किसी सरकारी बाबू के घर मे
चौथी बेटी जनमी थी
न थाली बजी
न सोहर गवीं
एक सन्नाटा छा गया
झील में एक तूफान आया
समुद्र तक ज्वार चला आया
चोथी बेटी के दिल नहीं होता है
उसका कोई अपना नहीं होता है
चौथी बेटी उदयपुर की झील है
उसकी आँखें लहराती रहती हैं
चौथी बेटी राजनर्तकी का घुँघरू है
बिन-बात खिलखिला उठती है
आज यही चौथी बेटी
झील के किनारे खड़ी है
अपने पुनर्जन्मों को चुभलाती हुई......


बेटी होने मात्र से
अपने कर्तव्यों से बरी हो गई मैं?
चुल्लू भर पित्रांजलि देने भर की भी
हकदारनी नहीं रही मैं?
गोया बेटी नहीं , झरबेरी का बेर हूँ
झट से झर पड़ी
काँटों से छिद गई मैं?
गोया बेटी नहीं , करोन्दे की झाड़ हूँ
खट्टी -पकी यादें हूँ
गोया बेटी नहीं
खाली झील हूँ
सागरी झील हूँ.......