आवाज़ / कृष्ण कल्पित
कोई भी बता देगा
पठानों की गली का रास्ता
अन्धेरी कोठरियों की एक लम्बी कतार
जिधर से गुजरते हुए डर दबोच लेता है
दहशत में भूल जाता है आदमी आज़ादी का साल
यह इस क़स्बे की सबसे भयानक जगह है
जिसके नीचे दबी हैं पुरखों की हड्डियाँ
लकड़ी के दरवाज़े लोहे की साँकलें एक जीवित भाषा
हमारा सबसे अनमोल खज़ाना दबा है
इन खण्डहरों के नीचे
इन कोठरियों में रात बिताते हैं भिखारी
बच्चे गिल्ली डण्डा खेलते हैं
जुआरी चढ़ जाते हैं छतों पर
क़स्बे की लड़कियाँ यही पर जानती हैं
पहले चुम्बन का स्वाद
यहीं से शुरू होती है इस क़स्बे की कहानी
यहीं पर ख़त्म होगी
इस कहानी के बीच कहीं ज़िक्र होगा
यहाँ के बाशिन्दों का
जो हमारे जन्म से बहुत पहले
घर छोड़ कर चले गए थे
अब भी सुनाई पडती है
दुसरे मुल्क से आती उनकी आवाज़
रचनाकाल : 1988