अकेले कहीं नहीं / संतोष कुमार चतुर्वेदी
पिता की
अकेली कोई तस्वीर नहीं
जिसमे सिर्फ़ वही हों
एक सुनसान-सी जगह में रहते थे पिता
जहाँ जुगाड़ने होते थे दिन और रात
मेरे और मेरे भाई बहनों के लिए
हमने कभी नही पूंछा
कहाँ से आते हैं सवाल
कैसे दिए जाते हैं जवाब
पिता से लम्बे दिनों के बाद मिलने की ख़ुशी में
भूल जाते थे हम
कहीं कुछ होता है अकेला भी
आज चुहानी में नहीं हैं तो सिर्फ़ पिता
पिछले दो तीन सालों से नहीं आए किसी भी दिन
जिसमे झोला खोलकर निकालें
जो कुछ ख़रीदा था हमारे लिए
सूरज की तरह जलते अकेले नहीं थे पिता
बहुत क़रीब बहुत दूर
घर पर होते थे पिता
अजीब सी उलझन है
कि इतने सालों बाद भी
अकेले कहीं नहीं
किसी में हमारे साथ खिलखिलाते
किसी में माँ से बतियाते
किसी में दोस्तों से हाथ मिलाते
अकेली ऐसी कोई तस्वीर नहीं
जिस पर चढ़ा सकें
हम फूलमालाएँ