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बहता रहा जो दर्द / देवी नांगरानी

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बहता रहा जो दर्द का सैलाब था न कम
आँखें भी रो रही हैं, ये अशआर भी है नम।

जिस शाख पर खड़ा था वो, उसको ही काटता
नादां न जाने खुद पे ही करता था क्यों सितम।

रिश्तों के नाम जो भी लिखे रेगज़ार पर
कुछ लेके आँधियाँ गई, कुछ तोड़ते हैं दम।

मुरझा गई बहार में, वो बन सकी न फूल
मासूम-सी कली पे ये कितना बड़ा सितम।

रोते हुए-से जशन मनाते हैं लोग क्यों
चेहरे जो उनके देखे तो, असली लगे वो कम।