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बाज़ार में इन्तज़ार / प्रेमरंजन अनिमेष

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बाज़ार में इन्तज़ार कर रहा हूँ मैं किसी का
यहाँ से एक साथ जाना है हमें कहीं
बेहतर होता
यदि मैं उसके घर चला जाता
या वह आ जाता मेरे यहाँ
मगर जिस समय में हम रह रहे
घर दूर है
और बाज़ार नज़दीक
घर में मिलना मुश्किल
बाज़ार में आसान

चारों ओर से आते रास्ते
मुझे नहीं पता
वह किधर से ढूँढ़ता आएगा मुझे
हर तरफ़ देखना है
अपने को आश्वस्त करते रहना
इतनी सारी चेहरे-जैसी चीज़ों
या चीज़ों जैसे चेहरों के बीच
वह मुझे देखेगा
ठिठकेगा देख कर पहचान लेगा...

एक ओर छाँव है कुछ दूर
कुछ देर खड़ा रहता हूँ वहाँ
लेकिन फिर अहसास होता
यह छाँव किसी की है
कुछ भी नहीं यहाँ यों ही
बिना लिए-दिए जिसका
उपयोग किया जा सकता
मैं धूप में आ जाता हूँ

थोड़े ही समय में लगने लगता
आना आसान है बाज़ार में
टिकना कठिन
खड़ा रहा इसी तरह
तो कोई हटा देगा
या मुझ पर अपना
इश्तिहार लगा देगा

टहलता हूँ इस मोड़ से उस मोड़
तो भी कई आँखों कन्धों कोहनियों से
टकराता कई पहियों के छींटें पड़ते
दबता कटता रह जाता

जहाँ से हटा
लौट कर देखता उस जगह
कहीं ऐसा तो नहीं
वह आया और मुझे न पाकर
फिर गया

कहाँ गया होगा वह किधर
जहाँ से आते रास्ते
ज़रूरी नहीं वहीं ले जाएँ

जो बहुत क़रीबी हैं
उनके कहीं आसपास होने पर
बजने लगती मेरी नब्ज़
क्या वह इतने निकट है मेरे
और मैं अपनी नब्ज़
सुन सकता हूँ इस शोर में ?
क्या उसे पुकारूँ
क्या यहाँ पुकारा जा सकता है किसी को
आदमी की तरह नाम लेकर ?

मुझे बेचैनी हो रही है
कहीं ऐसा तो नहीं
इस वजह से मेरी घड़ी तेज़ चल रही
आख़िर चलने का नाम है बाज़ार
और मैं यहाँ खड़ा होना चाहता
जहाँ रहा नहीं जा सकता सौदे के बिना
राह देख रहा जहाँ देखने को इतना कुछ

फिर एक बार फिर कर
उसी दुकान के सामने आता हूँ
जहाँ अपने होने उसे आने को कहा था
और ढीठ की तरह
खड़ा हो जाता हूँ
मुझे ख़बर नहीं
मेरे पीछे
बदला जा रहा
साइनबोर्ड ।