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नदी चुपचाप बहती है / अपर्णा अनेकवर्णा

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नीली नदी एक बहती है
चुपचाप..
सरस्वती है वो.. दिखती नहीं..
बस दुखती रहती है..

सब यूँ याद करते हैं जैसे बीत गई हो...
नहीं ख़बर.. न परवाह किसी को भी कि..
धकियाई गई है सिमट जाने को
अब हर ओर से ख़ुद को बटोर..
अकेली ही बहती रहती है..

नित नए.. रंग बदलते जहाँ में..
अपना पुरातन मन लिए एक गठरी में..
बदहवास भागी थी..
कहीं जगह मिले...

हर उस हाथ को चूम लिया
जिसने अपना हाथ भिगोया..
फिर ठगी देखती रही..
राही उठ चल दिया था..

पानी पी कर उठे मुसाफ़िर..
कब रुके हैं नदियों के पास?
उन्हें सफर की चिन्ता और मंज़िलों की तलाश है
नदियाँ बस प्यास बुझाती हैं
यात्रा की क्लान्ति सोख कर
पुनर्नवा कर देती हैं...

और जाने वाले को..
स्नेह से ताकती रहती हैं
जानती हैं.. वो लौटेंगे..
फिर से चले जाने के लिए..

पर सरस्वती सूख गई..
पृथु-पुत्रों का रूखपन सहन नहीं कर सकी
माँ की कोख में लौट गई..
अब विगत से बहुत दूर..
चुपचाप बहती रहती है...

दिखती नहीं.. सिर्फ़ दुखती रहती है..