शंखनाद / भारत भाग्य विधाता / नन्दलाल यादव 'सारस्वत'
भारत जे मुक्ति के मानस, वहीं अन्हरिया टापे टुप,
मुक्ति लेली तरसै भारत दुबड़ी-पर्वत चुप-चुप-चुप ।
अंग्रेजोॅ के राज अमावश, जीवन जुगनू रं भुक-भुक
जे भारत प्राणोॅ के मालिक, ओकरे प्राण ठो हुक-हुक-हुक।
साल अठारह सौ उनहत्तर, अक्टूबर के दोसरोॅ दिन
जागी उठलै अन्धकार पर एक किरण कण गिन-गिन-गिन।
पोरबन्दर पर उतरी ऐलै, भारत केरोॅ भाग्य विमल
के जानै छेलै ई तखनी यहा बरसतै होय बादल ।
पढ़ी-लिखी परदेशोॅ मेॅ जे लौटी ऐलै घर-स्वदेश,
ओकरोॅ आँखी मेॅ नाँचै बस, भारत केरोॅ दुखिया भेष ।
सब कुछ छोड़ी छाड़ी योगी, स्वदेशोॅ के कामोॅ लेॅ,
घूमेॅ लगलै गाँव-गाँव मेॅ, भारत के यश-नामोॅ लेॅ ।
भारत के हालत देखी केॅ, थमै नै गाँधी जी के लोर,
एक यही बस मन मेॅ उपजै, कहिया होतै एकरोॅ भोर ।