भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कोलकाता का प्रेम / तसलीमा नसरीन

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:19, 12 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तसलीमा नसरीन |अनुवादक=उत्पल बैनर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम तीसेक के लगते हो, हालाँकि हो तिरेसठ के
तिरेसठ के हो कि तीस के...
इससे किसी को क्या फ़र्क़ पड़ता है
तुम, तुम ही हो, वैसे ही, जैसा होना तुम्हें फबता है।

तुम्हारी दोनों आँखों में जब भी देखती हूँ
लगता है उन्हें शायद दो हज़ार सालों से जानती हूँ

होंठों की ओर, ठुड्डी की ओर, हाथ या हाथ उँगलियों की ओर
निगाह करते ही देखती हूँ कि मैं तो पहचानती हूँ उन्हें
दो हज़ार क्यों, उससे भी पहले से जानती हूँ।
इतना पहचानती हूँ कि लगता है
अगर चाहूँ तो उन्हें छू सकती हूँ, किसी भी वक़्त
दोपहर को, रात में, यहाँ तक कि आधी रात को भी।
लगता है उनके साथ जो चाहूँ, जब चाहूँ कर सकती हूँ
उन्हें सारी रात जगाए रख सकती हूँ ....
चिकोटी काट सकती हूँ, चूम सकती हूँ
मानो वे मेरे कुछ हैं।
मेरे इस लगने की ओर तीसेक के तुमने
कई बार तो देखा था, लेकिन कहा कुछ भी नहीं।
जब मैं बिलकुल हवा होने को थी
तब सिर्फ़ दोनों हाथ भर कर लाल गुलाब दिए थे तुमने
तो किस तरह गुलाब का कोई और तर्जुमा करूँ!
आजकल तो कोई भी किसी को भी
हमेशा गुलाब ही देता है
क्योंकि देना होता है .... सिर्फ़ इसलिए।
मैं प्रतीक्षा कर रही थी कि तुम
कुछ कहते हो कि नहीं
लेकिन तुमने कुछ नहीं कहा
मैं देख रही थी कि मन ही मन कुछ कहते हो कि नहीं
तुमने फिर भी कुछ नहीं कहा।

क्यों?
उमर होने पर क्या प्यार नहीं करना चाहिए?

मूल बांग्ला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी