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कुण्डलाकार विचार / कात्यायनी
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पृथ्वी कितना सूक्ष्म भाग है
और मनुष्य
कितना सूक्ष्मातिसूक्ष्म कणांश है
इस ब्रह्माण्ड का।
मिटना है एक दिन पृथ्वी को,
पृथ्वी पर जीवन को।
फिर क्यों कुछ करें?
क्यों लिखें कविता?
क्यों समय व्यर्थ करें
नया समाज बनाने की चिन्ता-तैयारी में?
क्यों करें नये-नये आविष्कार?
क्यों न जिएँ जीवन
जो मिला मात्र एक है, सीमित है।
सोचते रहें इन प्रश्नों पर भले ही,
पर चलो थोड़ा जी लें।
शुरू कहाँ से करें जीना,
सुखपूर्वक
आज़ादी से।
चलों, लिखें एक कविता।
अपने लोगों के पास चलें
सोचें नया समाज रचने की
तैयारी करें।
किसी नए आविष्कार की उत्तेजना,
किसी दार्शनिक चिन्ता या उलझन में
जिएँ
जीना फिर यहाँ से शुरू करें !