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गींज गए कपड़ों-सा... / केदारनाथ अग्रवाल

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गींज गए कपड़ों-सा उतारा हुआ अम्बर है,

मैली हुई मौन शाम फैली है

अनकही बतों की,

और हवा डूब गई नावों के

पाल लिए चलती है ।

नाटकीय रंगों का रंगमंच सूना है

न ही कोई नर्तक है,

न ही कोई वादक है,
न ही कोई गायक है;

हर्ष की हिलोरों को

पाँव से दबाए खड़ा सैनिक है ।

काई मढ़े पानी में सोई कहीं शोभा है,

चंचला अचंचल है--चारों ओर--

केश खोले चिन्ता है ।

धुएँ की अवस्था में देश-काल धुँधला है

मेरा मन ऎसी शाम देख कर सिहरता है,

रात जाने कैसी हो, मेरा मन डरता है ।