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कमीज़ / स्वप्निल श्रीवास्तव
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आज आलमारी से मैंने
तुम्हारे पसन्द की कमीज़ निकाली
उसके सारे बटन टूटे हुए थे
तुमने न जाने कहाँ रख दिया
मेरी ज़िन्दगी का सुई धागा
बिना बटन की कमीज़
जैसे बिना दाँत का कोई आदमी
मैं कहाँ जाऊँगा बाज़ार
कौन सिखाएगा मुझे कमीज़ में
बटन लगाने का हुनर
चलो इसको यूँ ही पहन लेता हूँ
जैसे मैंने तुम्हारे न होने के दुख को
पहन लिया है