भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मिस्टर लाल / प्रदीप शुक्ल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:08, 14 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रदीप शुक्ल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पास भवा लारिकउना
खुस भे
बहुत बिहारी लाल
उलरे उलरे फिरैं गाँव मा
बदली उनकी चाल

रातिउ दिन
ख्यातन मा जूझे
मिली तो किहिन मंजूरी
पढै केरि लरिका कै इच्छा
रहि ना जाय अधूरी

जुटे रहे
बसि यही जतन मा
काका सालौं साल

साहेब बनिकै
लरिका फिरि जब
रहै लाग रजधानी
हियाँ बिहारी काका झ्वान्कैं
हुआँ कि रोजु कहानी

अफसर है
लरिका हमार
सब कहते मिस्टर लाल

पहिने धोती
अउर अंगरखा
सहर पहुँचि गे काका
दफ्तर भीतर खबर किहिन
जईसे चपरासी झाँका

साहेब बोले,
गाँव के मनई
जीना किये मुहाल

सुनिनि बिहारी काका
तौ भा
आँखिन तरे अँधेरा
उल्टे पायन लउटि चले
वापस फिरि अपने डेरा

मरते दम तक
कबौं न पूँछिनि
फिरि लरिका के हाल।