Last modified on 14 जून 2016, at 10:24

जीता जागता इंसान / बृजेश नीरज

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:24, 14 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बृजेश नीरज |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

उकता गया हूँ
वही चेहरे देख-देख
सुबह शाम
वही सपाट चेहरे
भावहीन
किसी रोबोट की तरह

बस चलायमान
कभी दर्द नहीं छलकता
इनकी आँखों में

कभी-कभी
मुँह थोड़ा फैल जाता है
उबासी लेते हुए
कभी-कभी लगता है
जैसे मुस्करा रहे हैं

ये न बोलते हैं
न सोचते हैं
बस चलायमान हैं
किसी साफ्टवेयर से संचालित

कभी सोचता हूं
कब तक देखना होगा
इन मशीनी चेहरों को
क्या कभी
कोई सुबह
कोई शाम
कोई किरन
कोई हवा
भर पाएगी इनमें भी
जीवन के अंश
कि अचानक
ठहाके मार के हँस पड़ें
ये
चीख़ पड़ें
जब चोट लगे इन्हें


कभी तो हो ऐसा
काश
आदमी फिर से बन जाए
एक जीता जागता इंसान!