Last modified on 14 जून 2016, at 11:02

उस समन्दर तक / बृजेश नीरज

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:02, 14 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बृजेश नीरज |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

वो कौन सा फ़र्क है
जो मिला देता है
हक़ीक़त को इश्तिहार से

बस, एक मरीचिका-सा
पूरा जीवन पार हो जाता है
और तुम
कोई शिकायत करने लायक भी नहीं बचते
सिर्फ़ ओढ़कर लेट जाते हो
अपने ही असफलताओं को

मुँह ढँक लेने से
सूरज पच्छम से नहीं उगेगा

इस असलियत को पहचानना होगा
जो एक तुमसे उम्र में दुगना
बूढ़ा देश चला लेता है
और तुम परिवार नहीं चला पाते
तुम्हारी पत्नी की कमर दर्द से
सीधी नहीं हो पाती
और वो अभिनेत्री अभी भी
प्रेमिका-सी छलकती है
तुम्हारा बच्चा बूढ़ा हो गया
पर ठीक से बोल नहीं पाता
और उनका बच्चा पैदा होते ही
टी०वी० पर इण्टरव्यू देता है

लो अब तुमने मुँह लटका लिया
किसी भी बात पर उदास हो जाते हो
घास बन जाते हो

यह कोई डार्विन का सिद्धान्त नहीं
जो पेड़ तना खड़ा है
हालाँकि पत्ते झड़ गए

ईश्वर की त्रासदी नहीं
जो नदी अब इस तरफ बहकर नहीं आती

बारिश नहीं हुई
बादलों की साजिश नहीं
आँसू कम पड़ गए हैं
समन्दर में

तुम कभी समुद्र तक गए ही नहीं
अंगौछा लपेटे
इन पगडण्डियों में ही गोल घूम रहे हो

वो एक रास्ता
जिस पर खर पतवार उग आए हैं
वो जाता है
दिल्ली तक
वहीं एक गोल गुम्बद के नीचे
क़ैद है तुम्हारी क़िस्मत
एक पिंजड़े में

जा सकोगे वहाँ तक

जाना तो
चीख़ना एक बार
कुतुबमीनार पर चढ़कर
समुद्र की तरह मुँह करके
पुकारना उसे
चेहरे की झुर्रियां कम होंगी
बहुत से कबूतर उड़ पड़ेंगे

यहीं ज़ोर से पुकारते हो
कभी
आसपास के पेड़ों से बहुत सी
चिड़ियाँ उड़ पड़ती हैं फुर्र से
कुछ बूंदें गिरती हैं आसमान से
एक सोंधी महक उठती है
धरती से

ऐसे ही उठेगी
ख़ूब सारी महक
विदेशी इत्र से अधिक सोंधी
लेकिन जाना होगा उस तरफ़
जिधर से आती है हवा
उठते हैं बादल
उस समन्दर तक।