जननी भोग्या भी बन सकती है / रश्मि भारद्वाज
दायरों और मापदण्डों का इतिहास नया तो नहीं
सदियों से धरती की उपाधि से गर्वित मन
इस सच से अनजान भी नहीं
कि जननी भोग्या भी बन सकती है
पुराने मानकों से निवृति पाए बिना
अब नहीं पनप सकता है प्रेम
माना कि बोए गए सृजन के बीज
लेकिन इनकार करती है वह धरती होने से
जिस पर किया जा सके स्वामित्व
जिसे काटा जोता और बोया जा सके
जिसे ख़रीदा और बेचा जा सके
जिसे रौंदा जा सके निर्मम पद प्रहारों से
और फ़सल नहीं आए तो
चस्पाँ कर दिया जाए
बंजर का तमगा।
दायरे तब भी रहेंगे
मापदण्ड तब भी तय किए जाएँगे
विभक्त तब भी होगी वो
तमाम स्नेह-बन्धनों में
लेकिन ये सुकून रहेगा
उसने ख़ुद को खोया नहीं है
विशेषणों के आडम्बर में
धरती होने से इनकार करना
विद्रोह नहीं है उसका
बस एक भरोसा है
ख़ुद को दिया हुआ
कि उसका 'स्वत्व 'सुरक्षित है
कि उसने सहेज रखा है
ख़ुद को भी
सब कुछ होते हुए भी
वो पहले है इक इंसान
हर परिभाषा, दायरे और मानकों से परे