मुझे फूलों की तरह हल्के कुछ शब्द चाहिए
निर्दोष, पवित्र, मासूम शब्द
जो उठा सकें बोझ
मेरी भावनाओं का
जिनके सहारे मैं
जी सकूँ हमारा रिश्ता
शायद ये भारी-भरकम शब्द
जो तैर रहें होते हैं हमारे बीच
हमें दूर कर देते हैं हर बार
थोड़ा और।
बौद्धिकता का एक
छद्म आवरण
छीन लेता है
रिश्तों की गर्माहट
और हम ठिठुरते रह जाते हैं
शब्दों के बनते-बिगड़ते
समीकरण के साथ
नितान्त अकेले।
कितनी सहज रही होगी ज़िन्दगी
आदम और हव्वा की
ज्ञान का वर्जित फल चख़ने से पहले
भावनाएँ तो तब भी रही होंगी
उद्दात, प्रेममयी
नफ़रत, क्रोध, ईर्ष्या
सब कुछ तो रहा होगा
लेकिन नहीं ढोना होता होगा उन्हें
कृत्रिम शब्दों का बोझ
आती होगी उनमें से
बनेले फूलों-सी ही गन्ध
ऐसे फूल जिन्हें
माली की निरन्तर देखरेख में
गमलों में नहीं उगाया जाता
जो ख़ुद ही उग आते हैं
अपनी मिट्टी, अपनी रोशनी
और अपने ही आकाश के सहारे
मुझे भी ऐसे ही शब्द उगाने हैं
मेरे और तुम्हारे लिए
उधार के शब्दों से
नहीं लौटा सकूँगी
ज़िन्दगी का वो बकाया
जो मुझे तुम्हारे साथ रहकर ही लौटाना है