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गर हो सके तो / रश्मि भारद्वाज

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हो सके तो लौटा दो मुझे, दिन के वो रुपहले हिस्से
जब थके से क़दम सुनना चाहते हैं मेरी आहटें
नन्ही उँगलियों को होता है इन्तज़ार मेरी हथेलियों के स्पर्श का
आँखें खोजती है थाली भर गर्माहट स्नेह से पगी हुई
और मैं दूर कहीं धीरे-धीरे खो रही होती हूँ वो हरेक पल
जिन्हे खो देने से बड़ी कंगाली और कुछ नहीं हो सकती

हो सके तो लौटा दो मुझे वो तमाम सुबहें
जिसकी उजास मैंने अपने अन्दर नहीं भरी
और रात को ख़ुद में समेटे हुए ही शुरू कर दिए जाने कितने दिन
फिर अगली रात की तैयारी में
ऐसी तमाम शामें भी जाने कहाँ गईं
जब सड़कों पर रेंगती भीड़ के बीच मैंने नहीं देखी
पश्चिम की लालिमा, पार्क में खेलते रोशनी से भरे चेहरे
मेरी ही तरह घर लौटते अनगिनत पंछी
और आसपास तैर रही कई निष्प्राण आँखें
जिनमे छुपी थी जाने कितनी कहानियाँ बेचैन-सी .
किसी के सुने जाने के इन्तज़ार में

हो सके तो मुझे लौटा वो तमाम अजन्मी कविताएँ
जिन्हे मैंने इतनी मोहलत भी नहीं दी कि वो ले पाएँ साँसे
और दे जाएँ बदले में मुझे मुट्ठी भर प्राण वायु
जिसे बटोर लेने से कम हो जाता असर उस हवा का
जिसमें साँसे ले रहे हम सब
कुछ और ही हुए जा रहे हैं
जीने का भ्रम है बनाए रखा है बस
हर रोज़ जीना भूलते जा रहे हैं