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सत्यानंद के दोहे / सत्यानन्द

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के जानै कखनी कहाँ कौनें साधेॅ वैर
फूकी-फूकी राखियोॅ ‘सत्या’ आपनोॅ पैर ।

सुख सपना दुख सामनें, किंछा लेॅ अरदास
‘सत्या’ हमरोॅ जिंदगी आठो पहर उदास ।

शास्त्रा बिना विद्वान की, अनुभव बिन की ज्ञान
बिन परान के देह रं, तलवारोॅ बिन म्यान ।

‘सत्या’ है संसार छै, हुनके सें आबाद
परमारथ में जे करेॅ अपनां केॅ बरबाद ।

सब्भै लेॅ सुख मांगवै, अपनां लेॅ सेनूर
बाबा बड्डी दूर छै, जैवे मतर जरूर ।

खरखाही के फेर में भै जैवै बदनाम
‘सत्या’ गछबे नै करैं, नै सपड़ौ जों काम ।

धरम-करम केॅ नै कहोॅ ‘सत्या’ तोहें गोल
तोरो बनथौं एक दिन बाँसोॅ के फगदोल ।

केनां हक मारै हुनी, ‘सत्या’ नै छौं नाप
मूसा मांनी में जनां, ढुकी जाय छै साँप ।

मदद करी दौं केकरो, फुर्सत नै छै पास
दिन काटी लेतै सभैं, खेली-खेली तास ।

रंग-रूप में नै फँसोॅ, असल चीज छै चाल
मिरचा करुवे लागथौं, हरा रहेॅ या लाल ।

‘सत्या’ दुक्खें देलकै, हमरा एत्हैं झोल
आँखी में नै नीन छै, ठोरोॅ पर नै बोल ।

विकट-सें-विकट काम के, ‘सत्या’ सरल उपाय
लेरू आगू लै चलोॅ, आपन्है अयतै गाय ।

सरङ लगै छै भूत रं मौसम लागै परेत
‘सत्या’ सूखी जाय जों, कादोॅ करलोॅ खेत ।

हिरदै में नै छौं अगर, निज माटी लेॅ मोह
खोजी लेॅ निज वासतें, मंदारोॅ पर खोह ।

भिड़लोॅ छोॅ तेॅ राखिहोॅ, ‘सत्या’ मन में चेत
लार अगर जित्तोॅ रहेॅ, पटवे करतै खेत ।