भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गंगा-7 (तब तुम... ) / कुमार प्रशांत

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:04, 24 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार प्रशांत |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नदी है
पानी है
पानी में डूबता मेरा पाँव है :
नदी पखारती है, सहलाती है
डुबाती है और फिर छोड़ जाती है
मेरा पाँव

नहीं जानता कि मेरे पाँवों से
नदी को क्या मिल रहा है
लेकिन नदी से मेरे पाँवों को जो मिल रहा है
वह क्या मुझसे छिपा है!

कल नदी नहीं रहेगी
(कितनी नदियाँ तो नामशेष हो चुकी हैं! )
फिर...
फिर... मैं भी नहीं रहूँगा

लेकिन तुम...
तुम तो रहोगी
क्योंकि तुम स्वंय ही तो नदी हो
जिसमें पाँव डाले मैं बैठा हूँ