भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नींद बे-आवाज़ / शहनाज़ इमरानी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:58, 10 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शहनाज़ इमरानी |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अन्धेरी रात में बरसता है सहमा-सा पानी
अभी हवा दरख़्तों को छू कर गुज़री है
कुछ दैर शोर मचाया है पत्तों ने
इतना अन्धेरा और तन्हाई
दर्द की बाँसुरी के सुराखों पर
रखी हो उँगलियाँ जैसे

कई ज़ख़्मों के टाँके खुल गए हों
रात के चहरे पर दो ख़ाली आँखें
दीवार से फ़िसल कर गिरती है
बारिश थम गई है दरख़्त ऊँघने लगे
नींद बे-आवाज़ आ कर कहती है
सोना नहीं है क्या ?