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तेज़ बुख़ार में / शहनाज़ इमरानी

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नींद न आने का
अफ़सोस लिए जागती आँखे
क़तरा-क़तरा
उतरते तिलिस्म में फँसती
एक डरावनी रात में
बिस्तर पर ज़ंजीरों से बँधी मैं
आँखे आँसू बहाती
तपते जिस्म के लिए
नसों में दौड़ता है ख़ून तेज़ी से
मगर दिमाग़ थक गया है

दर्द ने फैला ली है हदें
काँटों वाली बाढ़
चुभ रही है उँगलियों तक
बिना रीढ़ की हड्डी के शरीर को
निचोड़ कर बिस्तर पर टपकता है
पसीना टप-टप

सब कुछ फ़ीका-सा
ज़बान के मज़े पर
चढ़ी हुई है एक पर्त
कहीं कोई ज़ायक़ा नहीं।