चाचे की मशीन / सुकुमार राय
चण्डीदास के चाचा ने चौचक्क मशीन बनाई,
छोटे - बड़े मुहल्ले के सब उसकी करें बड़ाई।
चाचा थे जब बिलकुल बच्चे, एक साल की उमर,
पुक्का फाड़के चिल्लाते थे "गुंगा, गुंगा" अकसर।
बोलें बच्चे मा मा, गा गा, ऐसा ही कुछ का कुछ,
इस बच्चे की "गुंगा" सुनकर दंग मुहल्ला सचमुच।
सब बोले इस बालक को तो बस प्रभु रखें बचाकर,
एक न इक दिन दिखलाएगा दूर की कौड़ी लाकर।
बात सच हुई, उस चाचे ने ऐसी चीज़ बनाई,
घण्टे पाँच की दूरी जिसने घण्टा तीन कराई।
देख आया मैं भी मशीन वो, बिलकुल है आसान,
पाँच- एक घण्टे में लोगे उसका सब कुछ जान।
क्या मशीन है! चीज़ अनोखी, कैसे तो बतलाऊँ,
गरदन में फिट होती है, लगवाकर देखो भाऊ।
उसके दूर किनारे पर आगे को लटका रहता
जैसा जिसको भाए - पूड़ी, पुआ, मिठाई, खस्ता।
"खा लो, खा लो" जी करता है, जैसे ही मुँह कढ़ता,
साथ-साथ ही लटका रक्खा खाना आगे बढ़ता।
इसी तरह लालच का मारा, देख-देख पकवान,
बेचारा जन दौड़ा चलता, ख़ूब लगाकर जान।
व्यञ्जन की सुगन्ध से आतुर, जीभ के जल में डूबा,
योजन एक सहज ही चल ले कोई नहीं अजूबा।
धन्य, धन्य सब ही बोले हैं, क्या बूढ़ा क्या बच्चा,
ख़ूब कमाया नाम, ग़ज़ब हैं चण्डीदास के चच्चा।
सुकुमार राय की कविता : खूड़ोर कल (খুড়োর কল) का अनुवाद
शिव किशोर तिवारी द्वारा मूल बांग्ला से अनूदित