क्षण / सुकान्त भट्टाचार्य
एक क्षण आया था जीवन में
जब लगा
ज़िन्दा रहने का मतलब है।
मृत्यु के शिकारी, दबे पाँवों की आहट
मेरी गुफ़ा में आई थी।
तेज़ बरसाती हवा के साथ जब
बूढ़े पीले पत्ते
घुले-मिले
उड़ आए थे कहीं-कहीं से
तब रोमांचित हुई थी दिशा-दिशा;
आकाश की आँखों में आशीष था,
जीवन में अमरत्व का क़रार।
वे क्षण आज भी अन्तर की
धुँधली टहनी पर
ताज़े फूल खिला जाते हैं, जिन पर
कविता की मधुमाछी मण्डराती है।
असँख्य क्षणों में निर्मित
सपनों का क़िला एक क्षण में
ढह गया,
अब परिक्रमा नहीं कर पाऊँगा सूर्य की।
सोचता हूँ
जो क्षण अदृश्य एक बाढ़ में बहाकर
ला सकता है निर्जन प्रान्तर में
सहसा,
उसे भूलने का रास्ता नहीं है।
अभी मैं ग्रहों के बीच हूँ,
कल शायद किसी क्षण के तीव्र आकर्षण से
सूर्य के दरबार में
धँस जाऊँगा,
क्षुब्ध काले तूफ़ान के जहाज़ में।
मूल बंगला से अनुवाद :शिव किशोर तिवारी