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विषवृक्ष / विलियम ब्लेक

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इस कविता पर बड़ी बहस हुई है। ऊपर से नर्सरी राइम जैसी दिखने वाली इस कविता का अंत इतना अप्रत्याशित और भयावह है कि मैं इसे भुतही कविता कहता हूँ। आप अपनी व्याख्या करें। मैं तो ब्लेक के समकालीन रॉबर्ट सदी से सहमत हूँ कि ससुरा खिसका हुआ था। -- अनुवादक

मुझे दोस्त पर गुस्सा आया,
गुस्सा ज़ाहिर करके मैंने गुस्से से छुटकारा पाया;
मुझे शत्रु पर आया क्रोध,
मन में उसे दबाकर रक्खा बढ़ता गया शत्रुता-बोध।

सुबह-शाम फिर उसको सींचा,
आँसू से अमर्ष के, भय का थाला खींचा;
नक़ली ओढ़ी मुसकानों की धूप दिखाई,
नाना छल-छद्मों से उसकी पौध बढ़ाई।

बढ़ा रात-दिन वृक्ष निरन्तर,
और एक दिन निकला उसमें सुफल मनोहर;
फल का सुन्दर रूप शत्रु ने जैसे देखा,
ललचाया गो उसे पता था फल मेरा था।

रजनी ने ध्रुवतारे पर डाला अवगुण्ठन,
तभी शत्रु उद्यान में मेरे करने लुण्ठन
घुसा, प्रात में मुदित हुआ मन,
पेड़ के नीचे पसरा पड़ा था मेरा दुश्मन।

अँग्रेज़ी भाषा से अनुवाद : शिव किशोर तिवारी


और लीजिए, अब पढ़िए यही कविता मूल अँग्रेज़ी में
A Poison Tree


poet William Blake

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A Poison Tree - Poem by William Blake
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I was angry with my friend:
I told my wrath, my wrath did end.
I was angry with my foe:
I told it not, my wrath did grow.

And I watered it in fears,
Night and morning with my tears;
And I sunned it with smiles,
And with soft deceitful wiles.

And it grew both day and night,
Till it bore an apple bright.
And my foe beheld it shine.
And he knew that it was mine,

And into my garden stole
When the night had veiled the pole;
In the morning glad I see
My foe outstretched beneath the tree.

.—William Blake