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नाथों का उत्सव / विशाल

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उन्होंने तो जाना ही था

जब रोकने वाली बाहें न हों

देखने वाली नज़र न हो

समझने और समझाने वाली कोई बात न बचे।


अगर वे घरों के नहीं हुए

तो घरों ने भी उन्हें क्या दिया

और फिर जोगियों... मलंगों...साधुओं...

फक्कड़ों...बनवासियों...नाथों...

के संग न जा मिलते

तो करते भी क्य॥


वे बस यही कर सकते थे

अपनी रूह के कम्बल की बुक्कल मारकर

समझौतों के स्टाम्प फाड़ते

अपने गवाह खुद बनते

अपनी हाँ में हाँ मिलाते

अपने ध्यान–मंडल में

संभालकर अपनी सृष्टि

छोड़कर जिस्म का आश्रम

अपने उनींदेपन की चिलमें भर कर

चल पड़ते और बस चल ही पड़ते।


फिर उन्होंने ऐसा ही किया

कोई धूनी नहीं जलाई

पर अपनी आग के साथ

सेका अपने आप को

कोई भेष नहीं बदला

पर वे अंदर ही अंदर जटाधारी हो गए

किसी के साथ बोल–अलाप साझे नहीं किए

न सुना, न सुनाया

न पाया, न गंवाया

बस, वे तो अंदर ही अंदर ऋषि हो गए

खड़ांव उनके पैरों में नहीं... अंदर थीं।


उनके पैरों में ताल नहीं

बल्कि ताल में उनके पैर थे

भगवे वस्त्र नहीं पहने उन्होंने

वे तो अंदर से ही भगवे हो गए


उन्होंने अपनी मिट्टी में से

सुंगधियों को खोजने जाना ही था

फिर वे कभी निराश नहीं हुए

अपितु हमेशा ही उत्सव में रहे

कइयों का न होना ही

उनका होना होता है