इतना भी आसान नहीं सबकुछ,
उठती रहें आपकी ओर उँगलियाँ और सलाखें और मोटी होती जाएँ,
यातना-शिविर में बदल जाएँ मकान,
कि दरो-दीवार पर उगी चीख़ों को सहेज कर हमने धर लिया है,
ना भूलेगी कभी बर्बर बूटो की आहटें,
ना दमनकारी चाहतें,
ना ही भूखे का निवाला बनती देह का क्रन्दन,
अन्धेरे में चमकती है सिर्फ दहशत भरी आँखें,
दूर-दूर तलक कहीं नहीं टिमटिमाती रौशनी,
उम्मीद के दीए तो कबके ताख पर रखकर बुझा दिए जाते हैं,
प्यार आया था कभी फुरसत से, दबे पाँव निकल गया अपनी राह,
बेआवाज़ कि भनक तक न लगी उसके जाने की,
हम तो दुर्भाग्य की चादर लपेटे पड़े हैं चारपाई पर...।