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घर के बाहर खड़ी नीम की... / केदारनाथ अग्रवाल

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घर के बाहर खड़ी नीम की हरियाली पर

बैठे कौए आकर यहाँ शाम से पहले

एक साथ ही काँव-काँव करते हैं कर्कश

शान्ति भंग होती है उनके

कोलाहल से

वातावरण फटा रहता है ज़ोर-जबर से

और नगर के अधिकाधिक आवारा गदहे

गला फाड़ कर फेंक रहे हैं बम के गोले

आबादी घायल होती है तन की, मन की

अस्ताचल में मर जाता है कवि का सूरज;

मृत सन्नाटा छा जाता है अन्धकार का ।

इस मरने में भी हँसना पड़ता है मुझ को

कर्म आदमी का करना पड़ता है मुझ को ।