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अनुबन्ध / भावना मिश्र

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तुम कहते हो
तुम मुझे स्वर्ग दोगे
इस कहने के पीछे
एक अनकहा अनुबन्ध है

कि मैं स्वीकार कर लूँ तुम्हें
इस स्वर्ग का निर्विवाद ईश्वर
तुम मुझे सुरक्षा देने की बात करते हो
और फिर से थमा देते हो मेरे हाथों में
एक मौन अनुबन्ध का लिफ़ाफ़ा
जो सुरक्षा के बदले माँगता है
पूर्ण समर्पण

आज तुम हर मंच पर चढ़कर
चीख़ रहे हो मेरी स्वतन्त्रता के हक में
और तुम्हारी इस चीख़ के पृष्ठ में
मैं सुन रही हूँ एक और अनुबन्ध की अनुगूँज
कि मुझे आजीवन रहना होगा
शतरंज का इक मोहरा

तुम्हारी अदम्य इच्छा है कि
तुम मुझे अपने बराबर का दर्जा दो
और मैं अन्तिम किवाड़ की टेक लिए खड़ी
सूँघ रही हूँ फिर एक घातक अनुबन्ध,
तुम्हारे बराबर आने के लिए
मुझे छोड़नी होगी
अपनी तिर्यक रेखा की प्रवृत्ति
जो काटती है तुम्हारे रास्ते

अपनी कुटिलता की कैंची से
मेरे पंख कतरने वाले
तुम्हारे इन अनुबन्धों को
नकारती हूँ मैं
मेरे पंख सलामत रहे तो
मैं ख़ुद तलाश लूँगी अपना आकाश