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झेलते हुए / पृष्ठ २ / भारत यायावर

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2.

मेरे बाहर और भीतर

जो शून्य है

जगाता रहता है

बार-बार


और मुझे

मेरी माँ की

ममता और करुणा के

आँसुओं में

अपने देश की

जर्जरित संस्कृति

तलाशती है


देश मेरे व्यक्तित्व का

पर्याय नहीं क्योंकि

मैं सिर्फ़

इस बूढ़े देश का

भूगोल होना

नहीं चाहता


देश

मेरे भीतर के शून्य को

पूर्ण करने में

शायद सक्षम न रहे

पर बाहर का शून्य

पूरित हो

उसकी धरती के जख़्म

भर देगा


देश मेरी माँ की

आँखें है

जिसमें मेरे लिए

एक अबोध विश्व है

जिसे मैंने

न जाने कितनी बार

नकार कर भी

स्वीकारा है


देश मेरे लिए

मात्र संस्कृति ही नहीं

आनेवाली

एक क्रान्तिकारी पीढ़ी के

समर्पित हाथों की

सम्भावना है


हाथ

जो तराशेंगे

हाथों को

हाथ एक नई संस्कृति

गढ़ेंगे


हाथों की तब

अपनी भाषा

और अभिव्यक्ति होगी


भाषा और संस्कृति पर

झगड़ते देश-भक्तों को

नकारते

सभी के प्रति प्रेम में डूबे

हाथों का तब

अपना इतिहास होगा


(हाथ

उठ रहे हैं

मिल रहे हैं

एक नई संस्कॄति

भाषा इतिहास

हो रहे हैं

हा
थ )