भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सूरज के किरण /रवीन्द्र चन्द्र घोष
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:39, 29 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रवीन्द्र चन्द्र घोष |अनुवादक= }} {{KKC...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
चोरी-चोरी चुपके-चुपके
खिड़की सेॅ केकरा झाँकै छै
अभी लालिमा सूरज केरोॅ
प्राची सेॅ आवै बाला छै
अभी भोर के अंधरिया मेॅ
मत एना ऐलोॅ-गेलोॅ करोॅ
अभी नींद-स्वप्निल बेला मेॅ
नै एना मिलना-जुलना करोॅ
चोर-उचक्का लोगें समझी केॅ
खरोॅ-खरोॅ कुछ कही देतौ तबेॅ
पानी उतरी जैतौं लाजोॅ के
हमरो इज्जत नै रहतोॅ तबेॅ
सुतली छी आभी सुतेॅ देॅ तों
फोड़ पावी केॅ हम्में ऐवौं
सूर्य-किरण भी आवी जैतै
साँझैं एकरौ साथें राखवौ ।