मौेसम / श्याम सुन्दर घोष
मौसम तेॅ दौगी-दौगी चूनै छै फुल
चूनै छै फुल की लोर्है छै फुल ?
ई लरिका रोज-रोज भोरे उठि जाय छै,
खुद तेॅ जगथैं छै सबकेॅ जगाय छै,
तिरफेकन दै छै गाछ-विरिछ झाड़ी के,
चाहै ई आम, वट, पीपल, बबूल।
ई सबके नसें-नसें भरै छै उछाह,
एकरा नै छै सुख-दुख के परवाह।
शीत-घाम, धूप-छाँह अंधड़-पानी ओलाµ
जे भी मिली जाय छै, मगन्है छै कबूल।
जेन्होॅ भी देश-काल, जेन्होॅ भी सांभ$-प्रात
या अछोर हरियाली, मामूली घास-पात,
केकरहौ सें एकरा छै कुछओ परहेज नैं
सब कुछ केॅ करै छै अपने अनूकूल ।
एकरा सें मानै छै कोय्यो नैं वैर,
मनेमन सबके मनावै छै खैर
ई दल-बल साजी केॅ आबेॅ छै राजा रं,
दूरहें सें चमकै छै छत्तर-मस्तूल।
मौसम नैं मानै छै एकरा सेॅ हार,
अलग-अलग ढंग सें करै छै सिंगार
धरती केॅ करै छै सोहागिन आशीष सेॅ,
भरी-भरी दै ओकरोॅ आँचल-दुकूल।
एकरा पर चलै छै केकरो नैं जोर,
एकरोॅ महिमा के नै ओर नैं छै छौर
सब कूछ छै एकरो मौलिक, अच्युत, सुन्दरµ
चाहै ई नियम-त्रा$म आकि उसूल।