भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
डर लगता है.. / शैलेन्द्र शान्त
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:50, 29 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शैलेन्द्र शान्त |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
कुछ कहते हुए
कुछ भी कहते हुए
डर लगता है
बढ़ जाती हैं धड़कने
जुबां से निकल जाती है
जब दिल की बात
सुनते-सुनते शोर
बढ़ जाता है सिरदर्द
कानों को डर लगता है
जब घुसती जाती हैं धमकियाँ
एतराज के एवज में
जगमग उजाले में छिपे
अन्धेरे से डर लगता है
आँखों को डर लगता है
दिख जाता है जब कभी
कोई नंगा सच।