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मधुशाला / भाग 10 / हरिवंशराय बच्चन / अमरेन्द्र

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सोम-सुरा पुरखां सब पीयै
जेकरा बोलै छी हाला,
द्रोणकलश जे कभी कहाबै
आय वही मधुघट आला,
वेद-विहित ई रस्म नै छोड़ोॅ
ठिकेदार सब वेदोॅ के,
ई तेॅ पुजैतैं ऐलै युग सें
नया तेॅ नै छै मधुशाला । 55

वहेॅ वारुणी सागर मत्थी
ऐलै जे आबेॅ हाला
रम्भा रोॅ संतान जगत में
कहलाबै साकीबाला
जे देवें-दानव लै ऐलकै,
साधू-संतें खतमैतै !
कै में कत्तेॅ दम-खम ई सब
खुब्बे समझै मधुशाला । 56

कभियो कहाँ सुनैलै-वैनें
छुलकै हा, हमरोॅ हाला’
कभी नै कोय्यो बोलै ‘वैनें
जुट्ठोॅ कै देलकै प्याला’,
कोन जात के लोग यहाँ पर
पीयै साथ नै बैठी केॅय
सओ सुधारक के असकल्ले
काम करै छै मधुशाला । 57

श्रम, संकट, संताप सभे टा
भूलै छौ पीवी हाला,
सबक बड़ोॅ सीखी चुकलौ, जों
सिखलौ रहबोॅ मतवाला,
हरिजन कथी लेॅ होय लेॅ चाहोॅ
तों तेॅ मधुजन ही अच्छाय
ठुकराबै हरि-मंदिरवाला
पलक बिछाबै मधुशाला । 58

एक किसिम सें सब रोेॅ स्वागत
करै यहाँ साकीबाला,
की अन्तर मुरखोॅ-पंडित में
होय गेला पर मतवाला,
रंक-राव में भेद नै होलै
कभियो भी मदिरालय में,
साम्यवाद रोॅ प्रथम प्रचारक
छेकै हमरोॅ मधुशाला । 59

हर दाफी हम्मीं होय आगू
माँगलियै नै जों हाला,
यैसें बुझियोॅ नै हमरा छी
हल्का-सन पीयैवाला,
नया-नया संकोच जरा ई
दूर हुएॅ तेॅ दौ साकीय
फेनू हमरे सुर सें सौंसे
गूंजी उठतै मधुशाला । 60